दिल्ली क्यों हुयी इतनी बेदिल
की लाडली बेटी की साँसे हो गयी बोझिल
देश की राजधानी बन गयी हैवानों का शहर
कभी अपने तो कभी पुलिस ढाती है कहर.
कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब हम ने दामिनी के दर्द को बांटा था और घबरायी सरकार ने जनता की खौफ़ से काफी देर के बाद , अंतिम साँसे गिनती उस बहादुर लड़की को सिंगापूर भेज कर उसके मरने की मुक्कमल व्यवस्था कर दी थी ,और फिर तो उसके बाद लगातार हवस के हैवानों का कहर दिल्ली पर टूटने लगा और संवेदनहीनता का आलम ये की रिश्तों की सारी बंदिशों को लांघते हुए कभी पिता ने अपनी बेटी को हवस का शिकार बनाया तो कभी भाई ने अपनी बहन को , हद तो तब हो गयी जब उन पर पाशविक अत्याचार भी किये गए , ये कैसी मानसिक विकृति आ गयी है समाज में ,शायद जानवर ही हम इंसानों से बेहतर हैं जिनके अन्दर मालिक के लिए वफादारी भी होती है, और संवेदना भी .
एक बार फिर देश में वही कहानी दुहरायी जा रही है और फिर एक लाडली जीवन और मौत के बिच झूल रही है. कितनी संवेदना जाग उठती होती है न हमारे अन्दर , जब हमें इस तरह की घटनाएँ झकझोर देती हैं और हाथों में तख्तियां लिए उतर पड़ते हैं हम अपनी आवाज़, गूंगी और बहरी सरकार तक पंहुचाने के लिए, लेकिन हम कभी नहीं सोचते की , जिस संवेदना के वशीभूत हम अपना आवेश और गुस्से की भड़ास सड़कों पर निकालते हैं वह सरकार का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती और सरकार में बैठे नुमाइंदों का एक बड़ा वर्ग सारी जनता को मात्र एक भेड़ों की जमात समझ कर उससे खेलता रहता है और यहाँ हम फिर एक बार गुमराह हो जातें हैं कभी दलीय राजनीति कभी जात की राजनीति और कभी धर्म के उन्माद में डूब कर और तब हम मुद्दे को ही भूल जातें हैं और फिर पुनः दरिन्दे हैवानियत की हदों को पार कर देश के दिल को निकाल कर उसे बेदिल करते रहते हैं. क्या कोई जान पायेगा , कभी उस परिवार की पीड़ा को , जो आजीवन इस दर्द को साथ लिए जीतें हैं. रोज अपने समाज के ही दिए जख्म से आहत होते रोज क़तरा क़तरा मरते हैं. हुंह ! देश के नेता कहतें हैं की हमारी भी बेटियां हैं, हम समझते हैं जनता का दुःख और दर्द , लेकिन जनाब आप कैसे समझेंगे उन बेक़स और जीने के लिए रोज संघर्ष करती जनता का दर्द काश, आपने अपने इर्द गिर्द फैले संगीनों को हटा कर एक आम आदमी बन के कभी जिया होता आपकी बेटियां बिना कमांडो के बाज़ार में कभी निकली होती तो पता चलता की कैसे इस देश में एक माँ अपनी बेटी को बचाने के लिए रोज संघर्ष करती है और उनकी रक्षा के लिए बना कानून, देश के नेताओं और अधिकारियों की कैसे चाकरी करता है.
हमारे लोकतंत्र की सशक्त आवाज़ हैं ये देश की सर्वोच्च पदों पर बैठी कई महिलाएं चलिए हम इनका नाम भी आपको बता देतें हैं ,चाहे देश का सर्वोच्च सदन लोक सभा हो या विधान सभा राष्ट्रपति की कुर्सी हो या मुख्यमंत्री की चाहे हम बात करें देश के अन्य सर्वोच्च पदों की चाहे महिला आयोग हो या अन्य सरकारी संस्थाओं के महत्वपूर्ण पद सारे जगहों आज इनका राज है चाहे सोनिया गाँधी हो या ममता बनर्जी चाहे सुषमा स्वराज हों या ममता शर्मा,शिला दीक्षित हो या मायावती,जयललिता हो या उमा भारती ,गिरिजा व्यास हों या अम्बिका सोनी , मीरा कुमार हो या किरण वालिया ,शायद इन महिला नेताओं को या तो अपनी शक्ति का ही ख्याल नहीं है या फिर मौन रहना इनकी कोई राजनैतिक मजबूरी और अगर एसा नहीं है तो फिर क्या कारण है देश में नहीं थम रहा बलात्कार का सिलसिला क्यों इन नारी शक्तियों की भुजाएं क्रोध से नहीं फडकती क्यों इनके रहते देश की हर महिला आज अपने आप को निरीह और अबला समझती हैं. ये वो सारे सुलगते सवाल हैं जिसका जवाब केवल देश की महिलायें ही नहीं बल्कि पूरा देश मांग रहा है ,की आखिर तुमने हमारे भोलेपन हमारे समर्पण और निश्छलता का ये कैसा सिला दिया है.